लोगों की राय

कोश-संग्रह >> क्रान्तिकारी कोश भाग 4

क्रान्तिकारी कोश भाग 4

श्रीकृष्ण सरल

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :352
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 331
आईएसबीएन :81-7315-235-7

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

444 पाठक हैं

काकोरी काण्ड, चटगाँव शास्त्रागार काण्ड युग, सन् 1926 से 1934 तक तथा सन् 1942 की भारत छोड़ो आन्दोलन के कुछ क्रान्तिकारियों का वर्णन

Krantikari Kosh Part 4 - A Hindi Book by - Shrikrishna Saral क्रान्तिकारी कोश भाग 4 - श्रीकृष्ण सरल

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इस श्रमसिद्ध व प्रज्ञापुष्ट ग्रंथ क्रान्तिकारी कोश में भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास को पूरी प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। सामान्यतयः भारतीय स्वतंत्र्य आन्दोलन का काल 1857 से 1942 ई. तक माना जाता है ;किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ में इसकी काल सीमा 1757 ई. (प्लासी युद्ध) से लेकर 1961 ई. (गोवा मुक्ति) तक निर्धारित की गयी है। लगभग 200 वर्ष की इस क्रान्ति यात्रा में उद्भट प्रतिभा, अदम्य साहस और त्याग तपस्या की हजारों प्रतिमाएं साकार हुई। इनके अलावा राष्ट्र भक्त कवि, लेखक, कलाकार, विद्वान और साधक भी इसी के परिणाम पुष्प है। पाँच खण्डों में विभक्त 1500 से अधिक पृष्ठों का यह ग्रन्थ क्रान्तिकारियों का प्रामाणिक इतिवृत्त प्रस्तुत करता है। क्रान्तिकारियों का परिचय अकारादि क्रम से रखा गया है। लेखक को जिन लगभग साढ़े चार सौ क्रान्तिकारियों के चित्र मिल सके, उनके रेखाचित्र दिये गये है। किसी भी क्रान्तिकारी का परिचय ढूढ़ने की सुविधा हेतु पाँचवे खण्ड के अन्त में विस्तृत एवं संयुक्त सूची (सभी खण्डों की) भी दी गयी है।
भविष्य में इस विषय में कोई भी लेखन इस प्रामाणिक ग्रन्थ की सहायता के बिना अधूरा ही रहेगा।

अंबिका चक्रवर्ती अर्धेंदु दस्तीदार

सूर्यसेन ने चटगाँव शास्त्रागार कांड के लिए अपने जिन साथियों को चुना था, उनमें अर्धेंदु दस्तीदार और अंबिका चक्रवर्ती भी थे। नियत तिथि पर अभियान के कुछ दिन पहले अर्धेंदु बम बनाते हुए बुरी तरह जल गया। वह पूरी तरह से ठीक नहीं हो पाया था, फिर भी उसने शास्त्रागार आक्रमण में भाग लिया और पूरी मुस्तैदी से काम करके दिखाया।
पुलिस और फौज के हथियारखाने लूटकर क्रांतिकारी लोग किसी सुरक्षित पहाड़ी पर पहुँचना चाहते थे। अंबिका चक्रवर्ती को पहाड़ी का रास्ता मालूम था। वह रात्रि के अंधकार में अपने साथियों का पथ-प्रदर्शन करता हुआ उन्हें सुलुकबहर पहाड़ी पर ले गया। प्रत्येक क्रांतिकारी के पास हथियारों का बोझ भी था।

22 अप्रैल, 1930 को जलालाबाद पहाड़ी पर फौज के साथ युद्ध में अर्धेंदु दस्तीदार और अंबिका चतुर्वेदी ने भी भाग लिया। अर्धेंदु के काफी घाव लगे। उसकी एक बाँह में गोली लगने के कारण ही हाथ की एक उँगली टूट गई। उसके गुर्दे के बाईं तरफ भी एक घातक घाव हो गया। उसकी जाँघ में तो घाव पहले से ही था। इतने घाव होने के कारण ही वह अपने साथियों के साथ उस समय नहीं जा सका, जब अँधेरा हो जाने के कारण युद्ध बंद हो गया। अंबिका चक्रवर्ती भी अधिक घायल हो जाने के कारण युद्धस्थल नहीं छोड़ सका।

23 अप्रैल को सुबह जब फौज की टुकड़ी पहाड़ी पर पहुँची तो उन लोगों ने अर्धेंदु दस्तीदार और अंबिका चक्रवर्ती को घायल अवस्था में गिरफ्तार कर लिया। उन दोनों को अस्पताल भिजवाया गया।
पुलिस इस नतीजे पर पहुँची कि अर्धेंदु दस्तीदार बच नहीं सकेगा। मरने के पहले वह उससे अंतिम बयान लेकर क्रांतिकारियों के भेद मालूम करना चाहती थी। उससे भाँति-भाँति प्रकार से पूछताछ की गई। अर्धेंदु ने अपने विषय के अतिरिक्त कोई अन्य जानकारी पुलिस को देने से इनकार कर दिया। 23 अप्रैल की रात को ही एक बजकर पचास मिनट पर उसने हमेशा के लिए अपनी आंखें बंद कर लीं।

अर्धेंतु बहुत उग्र विचारों का युवक था। राजनीतिक मामलों में अपने पिता से मतभेद हो जाने के कारण उसने अपने घर का त्याग कर दिया और सूर्यसेन के नेतृत्व में क्रांतिकारी दल में काम करने लगा था।

अक्लदेवी, कपिलदेव, केशवप्रसाद सिंह, केशव सिंह, कैलाश सिंह, गिरवर सिंह, छट्टन राय, जगन्नाथ सिंह, द्वारिकाप्रसाद सिंह, महादेव सिंह, रामानुज पांड,वासुदेव सिंह, शीतल मिस्त्री, शीतल सिंह, सभापतिसिंह


 -------------------------------------------------------------------------------------------


बिहार के आरा जिले में सन् 1942 के आंदोलन ने बहुत उग्र रूप धारण कर लिया। महिलाएँ भी मैदान में कूद पड़ीं और तोड़-फोड़ के कामों में भाग लेने लगीं। सरकारी कर्मचारियों ने भी आंदोलनकारियों को बहुत सहयोग दिया। अध्यापक वर्ग ने विद्यार्थी वर्ग को उकसाया ही, वे स्वयं भी तोड़-फोड़ के कामों में भाग लेने लगे।
एक स्कूल मास्टर थे श्री जग्गूलाल। 5 सितंबर को तोड़-फोड़ का नेतृत्व करते हुए वे अखाड़े में कूद पड़े। उनके साथ एक विशाल जुलूस निकला, जिसने कई दफ्तरों में आग लगा दी और खजाने तथा हथियारखानों पर अधिकार कर लिया। जब मास्टर जग्गूलाल किसी भी प्रकार कब्जे में आते दिखाई नहीं दिए, तो उनके घर को उड़ाने के लिए डायनामाइट लगा दिए गए। अपने परिवारवालों की जान बचाने के लिए मास्टर साहब ने अपनी गिरफ्तारी दे दी।

पुलिस स्टेशन पर ले जाकर मास्टर जग्गूलाल को इतनी अमानुषिक यातनाएँ दी गईं कि उस सदमे से उनके पिता का प्राणांत हो गया। मास्टर साहब के भाई कपिलदेव को अंग्रेज पुलिस ने गोली मार दी। उन्हें इतने से संतोष नहीं हुआ। उन्होंने कपिलदेव का पेट फाड़कर उसकी आँतें बाहर खींच लीं। पुलिस स्टेशन के रास्ते में जो भी व्यक्ति दिख जाता, उसे गोली मार दी जाती थी।
‘घोड़ादेई’ स्थान पर एक कवि श्री कैलाश सिंह ने ओजस्वी राष्ट्रीय कविताएँ सुनाकर लोगों को उत्तेजित किया। अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार करके खौलते हुए पानी में बार-बार डुबोया; यहाँ तक कि उनकी जान ही निकल गई। जगदीशपुर थाने के बलिगाँव में एक आंदोलनकारी छट्टन राय को गोली मार दी गई।

‘लसाढ़ी’ गाँव में आंदोलनकारियों को दबाने के लिए अंग्रेजी फौज भेजी गई। उस गाँव के ग्वालों को भी जोश आ गया और नगाड़े बजाते हुए उन्होंने अंग्रेजी फौज पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में बारह लोग शहीद हुए, जिनके नाम हैं—वासुदेव सिंह, शीतल सिंह, केशव सिंह, जगन्नाथ सिंह, सभापति सिंह, गिरवर सिंह, महादेव सिंह, केशवप्रसाद सिंह, द्वारिकाप्रसाद सिंह, रामानुज पांडे, शीतल मिस्त्री और अक्लदेवी।
बिहार प्रांत में प्रतिरोधात्मक आंदोलन पूर्णरूप से क्रांतिकारी आंदोलन में परिणत हो गया और उसने अन्य प्रांतों की अपेक्षा अच्छा नाम कमाया।

अतुलकुमार सेन, अनिल भादुड़ी, मणि लाहिड़ी
--------------------------------------------------------------------------------------------------------


 ‘‘यह वाटसन का बच्चा हम लोगों के विरुद्ध अपने अखबार में जहर उगलता रहता है। यदि इसका मुँह बंद नहीं किया गया तो छोटे-छोटे संपादक भी हमारी तरफ भौंकना प्रारंभ कर देंगे।’’
‘‘क्या कर देंगे, कर ही दिया है। ‘स्टेट्समैन’ बड़ा अखबार है। उसकी देखा-देखी छोटे-छोटे अखबार भी हम पर कीचड़ उछालने लगे हैं।’’
‘‘इसलिए यह जरूरी हो गया है कि हम ‘स्टेट्स’ के संपादक अल्फ्रेड वाटसन को ठिकाने लगाकर अन्य संपादकों को सबक दें।’’
‘‘वाटसन को सबक सिखाने का बी़ड़ा कौन उठाना चाहता है ?’’

ये विचार चल रहे थे कलकत्ता के क्रांतिकारियों के बीच। बीड़ा उठाने का प्रश्न जब सामने आया, तो अतुलकुमार सेन नाम के एक तरुण क्रांतिकारी ने स्वयं को प्रस्तुत करते हुए कहा—
‘‘अल्फ्रेड वाटसन पर हाथ साफ करने का पहला अवसर मुझे दिया जाए।’’
अतुलकुमार सेन की बात मान ली गई और उसे एक अच्छा रिवॉल्वर पार्टी की ओर से दे दिया गया।

5 अगस्त, 1932 को जब अपने घर मध्याह्न भोजन लेकर अल्फ्रेड वाटसन अपनी कार द्वारा अपने ऑफिस के फाटक पर पहुँचा और फाटक के अंदर जाने के लिए ज्यों ही उसकी कार धीमी हुई, अतुलकुमार सेन ने अपना हाथ खिड़की के अंदर डालकर वाटसन पर गोली चला दी। चूँकि कार आगे सरक रही थी, अतः खिड़की की दीवार अतुल के हाथ से टकराई। इसके दो दुष्परिणाम हुए—एक यह की गोली निशाने पर नहीं बैठी और वह वाटसन को हानि पहुँचाने के स्थान पर काँच को फोड़ती हुई निकल गई। दूसरा दुष्परिणाम यह हुआ कि हाथ में टक्कर लगने के कारण अतुल का रिवॉल्वर वाटसन की कार के अंदर गिर पड़ा। फाटक पर जो दरबान था, वह अतुल की तरफ लपका और गोली चलने की आवाज सुनकर पास ही खड़ा एक सिपाही भी वहाँ पहुँच गया। दोनों ने मिलकर आक्रमणकारी को काबू में कर लिया।

बहुत जोर लगाकर अतुलकुमार सेन ने अपना एक हाथ मुक्त कर लिया और अपनी जेब में से कोई वस्तु निकालकर मुँह में रख ली। उस वस्तु के खाने से वह बेहोश हो गया तथा अस्पताल पहुँचकर उसकी मृत्यु हो गई।
वाटसन के ऊपर पहले प्रयत्न के विफल हो जाने पर इस बार क्रांतिकारियों ने एक दल से उसपर आक्रमण किया।

28 सितंबर, 1932 को अपना दिन का काम समाप्त करके जब वाटसन अपनी कार द्वारा महिला सेक्रेटरी के साथ जा रहा था, तो एक खुली हुई कार में बैठकर उसका पीछा कर रहे कुछ क्रांतिकरियों ने उसकी कार के बगल में पहुँचकर उस पर गोलियाँ चलाईं। दो गोलियाँ वाटसन के कंधे पर लगीं। वाटसन ने अपने ड्राइवर से गाड़ी तेज चलाने के लिए कहा। ड्राइवर ने गाड़ी तेज चलाई; लेकिन इसी समय एक बग्घी सामने आ गई और वाटसन की कार को रुकना पड़ा। क्रांतिकारियों की कार उसके निकट पहुँच गई और उन्होंने उसपर कुछ गोलियाँ फिर चलाईं। वाटसन और महिला सेक्रेटरी दोनों ही घायल हुए। इसी समय एक सरजेंट वहाँ पहुँच गया और उसने वाटसन के आक्रमणकारियों पर गोलियाँ छोड़ीं। क्रांतिकारी कार से भाग खड़े हुए। सरजेंट ने वाटसन की गाड़ी द्वारा उनकी कार का पीछा किया। आगे चलकर एक बैलगाड़ी आ जाने के कारण क्रांतिकारियों की कार का भी रास्ता रुक गया। वे लोग कार से नीचे कूदकर भागे। एक क्रांतिकारी एक दिशा में भागा और तीन अन्य क्रांतिकारी अन्य दिशा में। अकेला क्रांतिकारी तो भागने में सफल हो गया, पर तीन क्रांतिकारी में से भागते-भागते दो गिर पड़े और गिरते ही उनकी मृत्यु हो गई। मरने वाले क्रांतिकारियों के नाम थे—मणि लाहिड़ी और अनिल भादुड़ी। जो क्रांतिकारी पकड़ा गया, उस पर तथा कुछ अन्य पर मुकदमा चला और उन्हें आजीवान कारावास के दंड दिए गए।

यह बात अवश्य हुई कि इस घटना के पश्चात् समाचार-पत्रों में क्रांतिकारियों के विरुद्ध अनर्गल लिखना बंद कर दिया।

अनंत सिंह


28 जून, 1930 की सुबह जब लोगों के हाथों में दैनिक अखबारों की प्रतियाँ पहुँची, तो बड़े-बड़े अक्षरों में छपी एक सनसनीपूर्ण खबर ने उन्हें चौंका दिया। खबर थी—‘आज दिनांक 28 जून, 1930 को क्रांतिकारी सूर्यसेन का एक विश्वसनीय लेफ्टीनेंट और चटगाँव शस्त्रागार लूट का महत्वपूर्ण नायक अनंतसिंह कलकत्ता में इंस्पेक्टर जनरल पुलिस के कार्यालय में आत्मसमर्पण करेगा।’

खबर सचमुच चौंका देने वाली थी। जिसने भी वह खबर पढ़ी, एकाएक उस पर विश्वास नहीं कर सका। जहाँ भी चार-छह लोग एकत्र होते, चर्चाएँ चल पड़तीं—‘‘यह समझ में नहीं आता कि जब चटगाँव क्रांति के छोटे-छोटे किशोर क्रांतिकारी भी पुलिस और फौज से डटकर मुकाबला कर रहे हैं तो अनंतसिंह जैसा महत्वपूर्ण और दिलेर क्रांतिकारी क्यों समर्पण कर रहा है ?’’
‘‘मुझे तो लगता है कि वह आत्म समर्पण करने वाला नहीं; और पुलिस ने क्रांतिकारियों में फूट डालने के लिए ही खबर शरारतन छपवाई है।’’

‘‘और अगर अनंतसिंह समर्पण करने के लिए पुलिस दफ्तर जाएगा भी तो रास्ते में ही कोई अन्य क्रांतिकारी उस पर गोली चलाकर उसे खत्म कर देगा। सचमुच ही पुलिस की यह गहरी चाल है।’’
‘‘नहीं भाई, यह शरारत से छपी हुई खबर नहीं हो सकती, क्योंकि सरकार विरोधी-समाचार-पत्रों में भी यह छपा है। मुझे तो लगता है, वह समर्पण करेगा और अपने किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसके समर्पण की योजना उसके साथी क्रांतिकारियों ने ही बनाई होगी।’’

‘‘यह कथन सच है, तो इसमें सूर्यसेन की ही कोई चाल मालूम पड़ती है। यह नहीं हो सकता कि सूर्यसेन के परामर्श के बिना इतना बड़ा क्रांतिकारी समर्पण करे।’’
‘‘मुझे तो लगता है कि सरकार क्रांतिकारियों के प्रश्न को लेकर निर्दोष लोगों को बहुत त्रास दे रही है। अनंतसिंह ने सोचा होगा कि यदि में समर्पण कर दूँ, तो कई लोग पुलिस के हाथों त्रास होने से बच जाएँगे।’’
‘‘नहीं-नहीं, यह नहीं हो सकता। न तो पुलिस ही इतनी मूर्ख है और न ही क्रांतिकारी। यदि इसे सच भी मान लिया जाए, तो अपनी इस चाल की सफलता के फलस्वरूप पुलिस सूर्यसेन जैसे नेता को समर्पण हेतु विवश करने के लिए तो जनता को और अधिक त्रास देने लगेगी। क्या क्रांतिकारी इस बात को नहीं जानते होंगे।
‘‘अरे भाई, इन सभी अटकलों का नतीजा कल सुबह का अखबार निकाल देगा। उसने समर्पण किया या नहीं, यह खबर हम लोग कल के अखबार में पढ़ लेंगे।’’

‘‘हम कल की प्रतीक्षा क्यों करें ? हम तो आज दिन-भर इंस्पेक्टर जनरल पुलिस के कार्यालय के आसपास मँडराते रहेंगे और यदि वह समर्पण करता है, तो हम उसे देख भी लेंगे।’’
और सचमुच ही कलकत्ता में इंस्पेक्टर जनरल पुलिस के कार्यालय को जानेवाली सभी सड़कों और गलियों में लोगों की अपार भीड़ देखी गई। अनंतसिंह कब कार्यालय पहुँच गया, इसका पता लोगों को तब चला, जब ‘इनकलाब जिंदाबाद’ के नारों से वातावरण गूँज उठा। लोग उसके दर्शन तो नहीं कर पाए, पर उनके मन के अनिश्चय की समाप्ति अवश्य हो गई।
जिस महान् क्रांतिकारी अनंतसिंह ने समर्पण किया, वह प्रारंभ से चटगाँव शस्त्रागार लूट की योजना में सम्मिलित था।
चटगाँव शस्त्रागार की लूट की योजना बनाते समय सूर्यसेन ने अनंतसिंह को यह दायित्व दिया था कि वह शस्त्रागारों पर आक्रमण करने के पहले अपने साथियों को शस्त्र-सज्जित करने के लिए कुछ हथियारों का संग्रह करे। अनंतसिंह ने इस कार्य को बखूबी किया। उसने चौदह पिस्तौलें और एक दर्जन बारह बोर की ब्रीच लोडर बंदूकें जुटा लीं। कुछ बने हुए बम उसने कलकत्ता से मँगवाए और चटगाँव में भी बमों का निर्माण किया गया।

चटगाँव में दो शस्त्रागारों पर प्रमुख रूप से आक्रमण करना था। एक था पुलिस का शस्त्रागार और दूसरा फौज का। पुलिस शस्त्रागार पर आक्रमण का नेतृत्व गणेश घोष को दिया गया था। उनके प्रमुख सहायक के रूप में अनंतसिंह को कार्य करना था।
पुलिस शस्त्रागार सफलतापूर्वक लूट लिया गया; लेकिन शस्त्रागार में आग लगाते समय हिमांशु दत्त नाम के एक क्रांतिकारी के कपड़ों में आग लग गई। किसी उपयुक्त स्थान पर उसे उपचार हेतु ले जाने का दायित्व अनंतसिंह ने पूर्ण किया।
फैनी स्टेशन पर पुलिस द्वारा घेर लिये जाने पर क्रांतिकारी अनंतसिंह ने अप्रतिम युद्ध किया और वह अपने साथियों को सुरक्षित निकाल ले गया।

सूर्यसेन की योजना के अनुसार ही अनंतसिंह ने पुलिस के हाथों समर्पण किया था। समर्पण के पश्चात् पुलिस ने अनंतसिंह को कई यातनाएँ दीं; पर उस वीर ने अपने दल का कोई भेद पुलिस को नहीं दिया। उसके समर्पण के पूर्व जिन क्रांतिकारियों ने गिरफ्तार होकर पुलिस को अपने बयान दिए थे, उन्होंने भी अपने बयान बदल दिए। उन्हें कमजोरियों से बचाने के लिए ही अनंतसिंह समर्पण करके जेल में पहुँचे थे।

अनाथबंधु पंजा, निर्मलजीवन घोष, प्रद्योतकुमार भट्टाचार्य, ब्रजकिशोर चक्रवर्ती, मृगेंद्रकुमार दत्त, रामकृष्ण रे
--------------------------------------------------------------------------------------------------------


बंगाल का मिदनापुर जिला क्रांतिकारियों का गढ़ बना हुआ था। वहाँ के प्रशासक भी क्रांतिकारियों के दमन में अमानवीय नृशंसता का परिचय दे रहे थे। मिदनापुर के क्रांतिकारियों ने संकल्प कर डाला—
‘‘हम लोग मिदनापुर के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेटों को उस समय तक मारते जाएँगे, जब तक वहाँ कोई भारतीय डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट नियुक्त नहीं किया जाता।’’
शासन ने क्रांतिकारियों की चुनौती को कोई महत्व नहीं दिया।

मिदनापुर के एक विद्यालय में प्रदर्शनी लगाई गई थी। प्रदर्शनी के उद्घाटन के लिए वहाँ के अँग्रेज डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट मि. जेम्स पैड्डी सादर आमंत्रित थे। 7 अप्रैल, 1931 को संध्या के समय साढ़े सात बजे वे प्रदर्शनी के उद्घाटन के लिए विद्यालय में उपस्थिति हुए। प्रदर्शनी कई कमरों में लगाई गई थी। पहले कमरे में प्रदर्शनी का उद्घाटन करने के पश्चात् वे प्रदर्शन उकरणों को देखते-देखते दूसरे कमरे में पहुँचे। वे उस कमरे के उपकरणों को देख भी न पाए थे कि एक युवक ने अपने रिवॉल्वर से उनपर गोलियाँ दागना प्रारम्भ कर दिया। जान बचाने के लिए वे अगले कमरे में भागे, तो एक अन्य क्रांतिकारी ने उन पर गोलियाँ छोड़ीं।

गोलियाँ चलने के कारण वहाँ भगदड़ मच गई। जब शांति स्थापित हुई तो डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट महोदय को एक कमरे में दीवार के सहारे खड़े पाया। उन्हें तुरन्त घोड़ागाड़ी में डालकर अस्पताल पहुँचाया गया और एक विशेष ट्रेन द्वारा कलकत्ता से डॉक्टरी सहायता मँगाई गई। कलकत्ता के डॉक्टरों ने मिदनापुर पहुँचकर पैड्डी साहब का ऑपरेशन करके एक गोली निकाली।
अगले दिन प्रातः-काल दस बजे फिर ऑपरेशन किया गया तथा एक गोली और निकाली गई। डिस्ट्रिक्ट महोदय की हालत बिगड़ती गई और 8 अप्रैल, 1931 की संख्या को वे इस दुनिया से चल बसे। मिदनापुर के क्रांतिकारियों की प्रतिज्ञा की पहली कड़ी सफल रही। मारनेवालों का कोई पता नहीं चला।

मि. जेम्स पैड्डी की हत्या में ब्रिटिश सरकार बौखलाई तो बहुत, लेकिन क्रांतिकारियों के आगे झुकी नहीं। मि. जेम्स पैड़्डी के स्थान पर दूसरे अंग्रेज मि. रॉबर्ट डगलस को मिदनापुर का डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट नियुक्त किया गया।
जब मि. रॉबर्ट डगलस ने मिदनापुर के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट का कार्यभार सँभाला, तो वे प्रारंभ से ही भयभीत रहे। उन्होंने अपने भय का प्रदर्शन करते हुए अपने भाई और अपने मित्रों को कुछ पत्र लिखे। शासन ने उनकी सुरक्षा का समुचित प्रबंध किया। क्रांतिकारियों की धमकी से सरकारी कामकाज तो रोके नहीं जा सकते थे। मि. डगलस मिदनापुर के डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के पदेन अध्यक्ष भी थे।

30 अप्रैल, 1932 को मिदनापुर के डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की मीटिंग चलती रही थी। सदस्यों की संख्या काफी थी। मीटिंग की कार्यवाही संध्या के पाँच बजे तक सुचारू रूप से चलती रही। मि. डगलस फाइलों पर हस्ताक्षर भी करते जा रहे थे। लगभग साढे़ पाँच बजे बरामदे में से होते हुए दो युवक मि. डगलस के इजलास में पहुँचे। उनमें से एक उनकी कुरसी के दाहिने ओर और दूसरा बाईं ओर उनके बिलकुल निकट पहुँच गया। उन दोनों ने साथ-ही-साथ मि. डगलस पर गोलियाँ दागना प्रारम्भ कर दिया। आठ गोलियाँ खाकर मि. डगलस लुढ़क गए और दोनों आक्रमणकारी भाग खड़े हुए। एक क्रांतिकारी एक बगीचे तरफ भागा और दूसरा क्रांतिकारी ‘अमर लॉज’ नाम के एक भवन की तरफ। बगीचे से थोड़ी दूर पर कुछ झोपड़ियाँ थीं। उस तरफ भागनेवाला क्रांतिकारी एक झोंपडी में घुस गया। झोंपड़ी में दीवारें नहीं थीं और पत्तियाँ भी इतनी कम थीं कि वह बाहर से दिखाई दे रहा था। डगलस के अंगरक्षकों ने उसपर गोलियाँ छोड़ीं। झोंपड़ी में से निकलकर वह बाहर भागा और उस पर फिर गोलियाँ छोड़ी गईं। गोलियों से घायल होकर वह गिर पड़ा और उसे गिरफ्तार कर लिया गया। उनका नाम प्रद्योतकुमार भट्टाचार्य था। उसकी तलाशी ली गई। उसकी जेब में से एक परचा पाया गया, जिसमें लिखा था—
‘हिजली जेल के कैदियों पर किए गए अमानुषिक अत्याचारों का यह एक हलका-सा प्रतिरोध है। हमारे बलिदानों से ब्रिटेन को सबक सीखना चाहिए और भारतीयों को भी इन बलिदानों से जाग्रत होना चाहिए।’

हिजली जेल के अमानुषिक अत्याचारों का संदर्भ यह था कि 16 सितंबर, 1931 की रात्रि को जेल के सारे सैनिकों ने संगठित होकर वहाँ के कैदियों पर हमला बोल दिया और एक घंटे तक निहत्थे कैदियों पर लाठियाँ चलाईं, संगीनों से हमला किया और गोलियाँ छोड़ी गईं। गोलियों से संतोषकुमार मित्रा और तारकेश्वर सेन नाम के दो क्रांतिकारी कैदी मारे गए। सरकार ने मामले को रफा-दफा कर दिया। उस हिजली कांड के अत्याचारों का उल्लेख प्रद्योतकुमार भट्टाचार्य ने अपने पत्र में किया था।

मि. डगलस पर गोलियाँ चलानेवाला दूसरा क्रांतिकारी पकड़ा नहीं जा सका।
मि. डगलस को तुरन्त ही मिदनापुर अस्पताल भेजा गया। विशेष डॉक्टरी सहायता खड़गपुर से बुलाई गई;  लेकिन वे बच नहीं सके और रात्रि के पौने दस बजे उन्होंने दम तोड़ दिया। अपने साथी क्रांतिकारी का नाम बताने के लिए पुलिस ने प्रद्योतकुमार भट्टाचार्य को भाँति-भाँति की यातनाएँ दीं। यातनाओं से बचने के लिए उसने गलत नाम बता दिए।
प्रद्योत का मुकदमा एक विशेष ट्रिब्यूनल को सौंपा गया, जिसने 25 जून, 1932 को प्रद्योत को मृत्युदंड का फैसला सुना दिया। मिदनापुर के केंद्रीय कारागार में उसे 12 जनवरी, 1933 को सुबह पाँच बजे फाँसी के फंदे पर झूला दिया गया।

   

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai